इक ख्वाब संजोया है मैंने / सरोज सिंह
इक ख्वाब संजोया है मैंने, कभी वक़्त मिले तो सुन लेना
सच्चा है या झूठा है, तुम खुद ही इसे गुन लेना...!
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
चिड़ियों से पूछा है मैंने, कुछ ठौर ठिकाना तिनकों का
कुछ तिनके मैं चुन लाऊँगी, उन तिनकों को तुम बुन देना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
होगी विश्वास की इक खिड़की, तकरार की मीठी सी झिड़की
किवाड़ प्रेम की मैं लगवा दूंगी, निवाड़ नेह की तुम बुन लेना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
घर में उजियारा करने को, मैं सूरज की रेज़े ले आउंगी
चंदा की चिरौरी करके तुम उजास चांदनी की चुन लेना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
घर को और सजाने को, अरमानो के झालर लटकाऊंगी
आँगन का अंधियारा मिटाने को, तुम बन से जुगनू चुन लेना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
अधकच्चे रिश्ते पकाने को मैं घर में चुल्हा जोडूंगी
उसमे अगियारा करने को तुम अना का इंधन चुन लेना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...
हालात से मिले दो सिक्कों से दो ही रुत मुझे मोल मिले
इक पतझड़ वो मैं रख लूंगी, दूजा बसंत वो तुम चुन लेना
इक ख्वाब संजोया है मैंने...