भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक घर बना लेते जहाँ / विपिन सुनेजा 'शायक़'
Kavita Kosh से
इक घर बना लेते जहाँ, ऐसा नगर कोई न था
हम उम्र भर चलते रहे और हमसफ़र कोई न था
हमको सदा उस पार से आवाज़ सी आती रही
जब फ़ासिले तय कर लिए देखा उधर कोई न था
पत्थर को माना देवता लेकिन वो पत्थर ही रहा
हम गिड़गिड़ाते ही रहे उस पर असर कोई न था
ख़ुशफ़हमियों में हमने कितना वक़्त ज़ाया कर दिया
ज़िन्दा रहे किसके लिए अपना अगर कोई न था
हमको हमारे बाद कोई याद करता किसलिए
कुछ शे'र कहने के सिवा हममें हुनर कोई न था