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इक चराग़ ऐसा मोहब्बत का जलाया जाए / 'साग़र' आज़मी

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इक चराग़ ऐसा मोहब्बत का जलाया जाए
जिस का हम-साए के घर में भी उजाला जाए

अपना साया भी नज़र आए तो कतरा जाए
इस अँधेरे में कहाँ अब कोई तन्हा जाए

ज़ुल्फ-ए-शब निकहत-ए-गुल मौज-ए-सबा गेसू-ए-यार
सब परेशां हैं किस किस को सँवारा जाए

मौत बेताब है सीने से लगाने के लिए
ज़िंन्दगी से तो मेरा हाल न पूछा जाए

सत्ह-ए-एहसास से मिटने लगे माजी के नुक़ूश
आओ अब फिर से कोई नक़्शउभारा जाए

अज सरमाया-ए-गम है तो ग़नीमत जानो
कहीं ऐसा न हो कल ये भी सहारा जाए

अपनी तक़दीर पे वो जितना भी रोए कम है
जो समुन्दर के किनारे से भी प्यासा जाए