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इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ / राजेश रेड्डी

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इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ ।
हर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ ।

खुलते भी भला कैसे आँसू मेरे औरों पर,
हँस-हँस के जो मैं अपने हालात बरतता हूँ ।

कंजूस कोई जैसे गिनता रहे सिक्कों को,
ऐसे ही मैं यादों के लम्हात बरतता हूँ ।

मिलते रहे दुनिया से जो ज़ख्म मेरे दिल को,
उनको भी समझकर मैं सौग़ात, बरतता हूँ ।

कुछ और बरतना तो आता नहीं शे'रों में,
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ ।

सब लोग न जाने क्यों हँसते चले जाते हैं,
गुफ़्तार में जब अपनी जज़्बात बरतता हूँ ।

उस रात महक जाते हैं चाँद-सितारे भी,
मैं नींद में ख़्वाबों को जिस रात बरतता हूँ ।

बस के हैं कहाँ मेरी, ये फ़िक्र ये फ़न यारब !,
ये सब तो मैं तेरी ही ख़ैरात बरतता हूँ ।

दम साध के पढ़ते हैं सब ताज़ा ग़ज़ल मेरी,
किस लहजे में अबके मैं क्या बात बरतता हूँ ।