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इक ज़िद्दी सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में / गौतम राजरिशी
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इक ज़िद्दी-सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में
अक्सर शोर मचाता है मन के सूने गलियारे में
आता-जाता हर कोई अब देखे मुझको मुड़-मुड़ कर
सूरत तेरी दिखने लगी क्या, तेरे इस बेचारे में ?
बारिश की इक बूंद गिरी जो टप से आकर माथे पर
ऐसा लगा, तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में
हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी गुब्बारे में
यूँ तो लौट गई थी उस दिन तुम घर के चौखट से ही
ख़ुश्बू एक अभी तक बिखरी है आँगन-ओसारे में
फ़िक्र करे या ज़िक्र करे ये या फिर तुमको याद करे
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में
सुर तो छेड़ा हर धुन पर, हर साज़ पे गाकर देख लिया
राग मगर अपना पाया बस तेरे ही इकतारे में
(वर्तमान साहित्य, जुलाई 2013)