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इक तबस्सुम के लिए बारहा सोचा उसने / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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इक तबस्सुम<ref>मुस्कान</ref> के लिए बारहा<ref>बार-बार</ref> सोचा उसने ।
फिर दिया भी तो महज़ फासला तन्हा उसने ।

लबे सागर<ref>समन्दर के होंठ</ref> के किनारों पे तिशनगी<ref>प्यास</ref> का दीया,
काश ! देखा हो मचलते हुए बहता उसने ।

कभी सीखा था घटाओं की रवानी<ref>बहाव</ref> सुन कर,
अपने दिल का भी मुझे हाल सुनाना उसने ।

अपनी आँखों में समेटे हुए बदली की फ़ज़ा<ref>मौसम, वातावरण</ref>,
प्यासी धरती-सा मुझे एक पल देखा उसने ।

ज़र-ओ-ज़ेवर<ref>सोना, गहने</ref> की ही मानिन्द मेरे प्यार को भी,
इक दिलासे की तरह हिज्र<ref>जुदाई</ref> में पहना उसने ।

मेरी ग़ैरत को ही मग़रूरी<ref>घमण्ड</ref> समझ कर शायद,
दिल में ठाना था मुझे 'मुंतज़िर’<ref>प्रतीक्षारत</ref> रखना उसने ।।

शब्दार्थ
<references/>