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इक तरफ गुंजान बस्ती इक तरफ सुनसान बन / नज़ीर बनारसी
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इक तरफ गुंजान बस्ती इक तरफ सुनसान बन
देखिये जब तक जहाँ लग जाये दीवाने का मन
जो न तुझको जानता हो जा के धोका उसको दे
मैं तुझे पहचानता हॅँू जिन्दगी मुझसे न बन
चन्द आँसू काँटे, चन्द कलियाँ, चन्द फूल
हों सलीके से जहाँ मौजूद, वो भी इक चमन
आप ही अब अहल <ref>योग्य</ref> भी हैं और ही नाअहल <ref>अयोग्य</ref> भी
राहबर <ref>मार्गदर्शक</ref> कह लीजिय अपने को अब या राहजन <ref>लुटेरा</ref>
देर तक उठता धुआँ उठ-उठ के सर धुनता रहा
सब के सब चोैेंके अँधेरी हो चुकी जब अंजुमन <ref>महफिल</ref>
मरे उनक ेअब नहीं बनने-बिगड़ने का सवाल
कुछ अगर बनती-गिड़ती है तो माथे की शिकन
तुम जिसे समझे हो बालों की सफेदी ऐ नजीर’
मैं समझता हूँ उसे अपनी जवानी का कफन
शब्दार्थ
<references/>