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इक तेरी चाहत में / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
इक तेरी ही चाहत में
हम तो बन गये जुआरी।
सब दाँव लगा दी खुशियाँ
और हमने बाजी हारी।
चौराहों पर लटकी हैं
मेरे ही घर की बातें
सब मीत चल रहे मेरे
देखो शतरंजी घातें
रिसते जख़्मों पर उंगली
रखती है दुनिया सारी।
हमने लाखों सावन हैं
इन दो आँखों में पाये
हमसे ही मिल पपिहे ने
है गीत व्यथा के गाये
मेरी बाँहों में सोयी
है युग-युग की अंधियारी।
ये भी काश सँवरते
मुमकिन है होते अपने
कहो किसके सहारे जीयें
सब टूटे बिखरे सपने
अब तो शायद साँसों के