भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब।
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब।
पूँजी के चाकर भर हैं ये सारे के सारे,
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब।
चाँदी की चप्पल हो तो चरणों में लोटेंगे,
मंत्री-वंत्री, डीएम-वीएम, जनरल-वनरल सब।
समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे,
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब।
कंकरीट का राक्षस धीरे-धीरे खाएगा,
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब।
जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे,
पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब।
आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे,
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब।