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इक दिन मिली हक़ीक़तन वो दफ़अतन मुझे / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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इक दिन मिली हक़ीक़तन वो दफ़अतन मुझे
दिखती रही जो ख़्वाब में शीशा-बदन मुझे।

मैली अगर नज़र न हो, हर शय है खुशनुमा
यह फलसफा सिखा गई गुल-पैरहन मुझे।

जाना ही था बहार को आकर गई, मगर
तोहफे में बख़्श कर गई रंगे-चमन मुझे।

लेने को चैन ले गई दिल का क़रार भी
बदले में दे गई मगर ज़ौके-सुख़न मुझे।

तस्वीर उसकी चूम ली हाथों में ले के जाम
बैचैन करने जब लगी दिल की जलन मुझे।

लज़्ज़त से प्यार की मैं जहाँ आश्ना हुआ
भूली नहीं अभी तेरी वो अंजुमन मुझे।

कैसे कहूंगा मैं उसे 'विश्वास' बेवफ़ा
जिसने न आज तक कहा वादा-शिकन मुझे।