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इक धुआँ उठ रहा है आँगन से / रफ़ीक राज़

इक धुआँ उठ रहा है आँगन से
हैं अभी कुछ चराग़ रौशन से

इस में शामिल है बू-ए-अफ़्लाकी
ये हवा आ रही है किस बन से

देने आया हूँ फ़त्ह का मुज़्दा
भाग आया नहीं हूँ मैं रन से

मंज़िलों की भी आरज़ू है बहुत
डर भी लगता है मुझ को रन-बन से

अब भी क्या रात के अँधेरे में
शोला उठता है गुलशन-ए-तन से

सुर्ख़-रू इश्‍क़ की ब-दौलत हूँ
कि मैं इस आग में हूँ बचपन से

ये ज़माना है चापलूसी का
हम तो वाक़िफ़ नहीं इसी फन से

मुझ से पहचान तेरी क़ाएम है
मैं तुम्हें चाहता हूँ तन-मन से