भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक नयी कशमकश से गुजरते रहे / ओमप्रकाश यती
Kavita Kosh से
इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे
हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे
कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे
रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे
जिंदगी की परेशानियों से “यती”
लोग टूटा किये,हम निखरते रहे