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इक न इक रोज़ तो रुख़सत करता / परवीन शाकिर

इक न इक रोज तो रुखसत करता
मुझसे कितनी ही मोहब्बत करता

सब रुतें आ के चली जाती हैं
मौसम ए गम भी तो हिजरत करता

भेड़िये मुझको कहाँ पा सकते
वो अगर मेरी हिफाज़त करता

मेरे लहजे में गुरुर आया था
उसको हक था कि शिकायत करता

कुछ तो थी मेरी खता वरना वो क्यों
इस तरह तर्क ए रफ़ाकत करता

और उससे न रही कोई तलब
बस मेरे प्यार की इज़्ज़त करता