इक बियाबान में सपनों के सफ़र होता है / विनय कुमार
इक बियाबान में सपनों के सफ़र होता है।
देख लेना सुबह चेहरे पे असर होता है।
लैला मजनू सी मुहब्बत है मुझे दुनिया से
चोट लगती है उधर, दर्द इधर होता है।
साँप बाज़ार में आए हैं देखने के लिए
कैसा इंसान के दातों का ज़हर होता है।
छत फ़लक, फर्श ज़मीं और उफ़क़ दीवारें
बेघरों के लिए अल्लाह का घर होता है।
‘स’ सियासत की सुने ‘च’ को लगे चाल भली
सच को अंदर से बिखर जाने का डर होता है।
दिल कटे खेत में मुस्तैद वह बिजूका है
जिसकी यादों में परिंदों का शहर होता है।
दूध के धोए दरिंदों की हुक़ूमत का दौर
अब कहाँ कांधे पर अब हाथ पर सर होता है।
क्या विरासत की नुमाइश है, क्या सदाक़त है
तख़्त चांदी का है, खादी से कवर होता है।
नम अंधेरे से निकलती है दबे पाँव ग़ज़ल
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है।
(फ़ैज़ और दुष्यन्त कुमार के लिए)