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इक भी आंसूं नहीं है रोने को / उदय कामत
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इक भी आंसूं नहीं है रोने को
तू भी मिलता नहीं है खोने को
रात भर ख़्वाब देखते हैं तेरे
दिन में आँखें तरसती सोने को
कैसे वीरान ज़िन्दगी संवरे
तुख़्म-ए-ग़म तक नहीं है बोने को
साथ था दो घड़ी का पर बीती
उम्र इक लम्हों को पिरोने को
है पुर-अफ़्सूं नज़र तुम्हारी पर
आज़माओ न जादू टोने को
ज़ौक़-ए-परवाज़ को भी कर मजबूर
तू तह-ए-दाम में समोने को
तोड़ कर दिल मिरा वोः ज़ालिम अब
ढूंढ़ता है नए खिलौने को
कश्ती ले ली जज़ीरे तक जब एक
मौज आयी मुझे डुबोने को
ज़िक्र सब की जुबां पे हो 'मयकश'
मुन्तज़िर हम है रुसवा होने को