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इक राजा था, इक रानी थी / शशिकान्त गीते
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इक राजा था, इक रानी थी
राजा-रानी अपनी सोचें
मंत्री-सैनिक परजा नोचें
लूटमपाट-डकैती-चोरी
और करों की मनमानी थी
भूखी-प्यासी खालिस परजा
गिरवी सांसें, भारी करजा
ढोर- डांगरों को भी मुश्किल
सूखी कड़बी औ’ सानी थी
बस्ती-वन रेती के सूबे
सरकारी रोगों में डूबे
राज-समाज मूल्य जर्जर पर
राज-काज को क्या हानि थी
अन्त सबुर का बन्धन टूटा
चुप्पी भीतर लावा फूटा
डूब मरे सब खल मंसूबे
और महल में वीरानी थी
राजा-रानी नहीं रहे पर
सबकुछ वैसा भीतर-बाहर
रुग्ण व्यवस्था में न आ सकी
जो बदलावट आनी थी