भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक रोज़ गुलिस्ताँ से मिलने को हवा आई / गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’
Kavita Kosh से
इक रोज़ गुलिस्ताँ से मिलने को हवा आई ।
इक हाथ में खंजर था इक हाथ में शहनाई ।
सोचा था कि मिलने पर, दिल खोल मिलेंगे हम,
.कमबख़्त ज़ुबाँ उनसे कुछ भी तो न कह पाई ।
कुछ सोच समझ कर यूँ मजमून लिखा उसने,
लफ़्ज़ों से तो मिलना था, मानी में थी तन्हाई ।
इक क़त्ल हुआ, क़ातिल लगता था किसी का कुछ,
मुलज़िम ने अदालत से कुछ भी न सज़ा पाई ।
रहते थे यहाँ पर जो वे लोग फ़रिश्ता थे,
इस वक़्त यहाँ रहने, जाने क्यों क़ज़ा आई ।