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इक रोज़ गुलिस्ताँ से मिलने को हवा आई / गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’

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इक रोज़ गुलिस्ताँ से मिलने को हवा आई ।
इक हाथ में खंजर था इक हाथ में शहनाई ।

सोचा था कि मिलने पर, दिल खोल मिलेंगे हम,
.कमबख़्त ज़ुबाँ उनसे कुछ भी तो न कह पाई ।

कुछ सोच समझ कर यूँ मजमून लिखा उसने,
लफ़्ज़ों से तो मिलना था, मानी में थी तन्हाई ।

इक क़त्ल हुआ, क़ातिल लगता था किसी का कुछ,
मुलज़िम ने अदालत से कुछ भी न सज़ा पाई ।

रहते थे यहाँ पर जो वे लोग फ़रिश्ता थे,
इस वक़्त यहाँ रहने, जाने क्यों क़ज़ा आई ।