भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया / सरवत हुसैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
तोड़ी जो शाख़-ए-रंग-फ़िशाँ हाथ जल गया

दीवार ओ सक़फ़ ओ बाम नए लग रहे हैं सब
ये शहर चंद रोज़ मैं कितना बदल गया

मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
इक अज़्दहा चराग़ की लौ को निगल गया

बचपन की नींद टूट गई उस की चाप से
मेरे लबों से नग़्मा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल गया

तन्हाई के अलाव से रौशन हुआ मकाँ
‘सरवत’ जो दिल का दर्द था नग़मों में ढल गया