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इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया / सरवत हुसैन
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इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
तोड़ी जो शाख़-ए-रंग-फ़िशाँ हाथ जल गया
दीवार ओ सक़फ़ ओ बाम नए लग रहे हैं सब
ये शहर चंद रोज़ मैं कितना बदल गया
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
इक अज़्दहा चराग़ की लौ को निगल गया
बचपन की नींद टूट गई उस की चाप से
मेरे लबों से नग़्मा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल गया
तन्हाई के अलाव से रौशन हुआ मकाँ
‘सरवत’ जो दिल का दर्द था नग़मों में ढल गया