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इक सब्ज़ रंग बाग़ दिया गया मुझे / शाहिद मीर

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इक सब्ज़ रंग बाग़ दिया गया मुझे
फिर ख़ुश्‍क रास्तों पे चलाया गया मुझे

तय हो चुके थे आख़िरी साँसों के मरहले
जब मुज़दा-ए-हयात सुनाया गया मुझे

पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे

रक्खे थे उस ने सारे स्विच अपने हाथ में
बे-वक़्त ही जलाया बुझाया गया मुझे

चारों तरफ बिछी हैं अँधेरों की चादरें
शायद अभी फ़ुज़ूल जगाया गया मुझे

निकले हुए थे ढूँढने ख़ूँखार जानवर
काँटों की झाड़ियों में छुपाया गया मुझे

इक लम्हा मुस्कुराने की क़ीमत न पूछिए
बे-इख़्तियार पहले रूलाया गया मुझे