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इक साँय-साँय घेरे है, गिरते मकान को / शीन काफ़ निज़ाम


इक साँय-साँय घेरे है, गिरते मकान को
और आँखें ताकती है चमकती चट्टान को

चढ़ते ही मेरे हो गई दीवार से अलग
हसरत को देखता हूँ उसी निर्दबान को

अंदेशे दूर-दूर के नज़दीक का सफ़र
किश्ती को देखता हूँ कभी बादबान को

ज़िन्दाने रोज़ो-शब में है हम सबको उम्र क़ैद
कोई बचाए आ के मिरे खानदान को
 
यादों के शोरो-गुल खड़ी घर की ख़ामोशी
आवाज़ दे रही है किसी मेहरबान को

बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
लेकिन ज़मीन मिलती नहीं आसमान को