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इक हक़ीक़त गुमान जैसी है / सुभाष पाठक 'ज़िया'
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					इक हक़ीक़त गुमान जैसी है
बे ज़ुबानी  बयान  जैसी  है 
क्या पता कल रहे रहे न रहे
हसरते दिल थकान जैसी है
उसकी फ़हरिस्त में मेरी क़ीमत
आख़िरी पायदान जैसी  है
आ  गया मेरा दिल वहाँ कि जहाँ
बेक़ली  इत्मिनान  जैसी  है
हां 'ज़िया' मुझको भी मिली है ख़ुशी
पर क़फ़स में उड़ान जैसी  है
	
	