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इगनोरेंस / संगीता शर्मा अधिकारी

Kavita Kosh से
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आदमी कभी नहीं
बर्दाश्त कर पाते
अपना इगनोरेंस
कोई कर तो दे उन्हें अनदेखा!

उनको तो अच्छा लगता है
हमेशा लाइमलाइट में रहना
औरत का मैमनी बन
उनके आगे पीछे बहना।

बात बात पर
औरत को आंखें दिखाना
गला रूंध जाने तक
हथेलियों के दबाव को
मर्दानी ताकत से कसते जाना।

सभी नहीं
पर
कुछ को तो
जरूर ही भाता है
ये गुरूर

आदमी बर्दाश्त कहाँ कर पाते हैं
अपना नेगलिजेंस
अपना इगनोरेंस
अपनी उपेक्षा
अपनी अनभिज्ञता

हज़ारों-लाखों वर्षों से
कई हज़ार झगड़ों में
इगनोरेंस का
उलाहना देते-देते
अब इन औरतों ने भी
सीख लिया है इस इग्नोरेंस
के ही साथ जीना।
औरतें
कितनी जल्दी
सीख जाती है
कुछ भी अनचाहा-सा!
 
अब औरतों को भी
अच्छा लगने लगा है
उनको अनदेखा करना।
इग्नोर करना

उसने बना लिए हैं
अपने इर्द-गिर्द
ख़ुद को खुश रखने के
रक्षा कवच से अनेक घेरे
अब वह उसी में रहने लगी हैं मस्त।

अब उसको भाने लगा है
उसका,
ख़ुद का इगनोरेंस
 
लेकिन आदमी
आदमी कभी बर्दाश्त
नहीं कर पाते
अपना जरा भर भी इग्नोरेंस।
वो उठा लेते है
पूरा घर, अपने सर पर
और दहाड़े मार-मार
चीखने-चिल्लाने लगते हैं
अपनी ज़रा भर की
अनदेखी से!

आदमी
आदमी, क्यों नहीं
छोड़ते-सीख पाते
कभी भी
कुछ भी
औरत जैसा इग्नोरेंस