भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इच्छावृक्ष रहे फूला / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहते, सखी
प्रीति-गाथा हैं
ये सुहाग के चिह्न हमारे सीने पर
 
नेह-नखत ये तुमने आँके
माथे के सिंदूर -
होंठ की लाली से
फूल झरे हैं हम दोनों पर
हरसिंगार की
नई-नवेली डाली से
 
इच्छावृक्ष
रहे फूला यह
साँसों में नित अमृत-रस बरसे झरझर
 
पाँव तुम्हारा छुआ अचानक
पेर हमारा है
अशोक का वृक्ष हुआ
बोल रहा है मंत्र छोह के
रह-रह, सजनी
भीतर बैठा हुआ सुआ
 
हँसी तुम्हारी
भरी जादुई
हुआ सुहागिल पल-भर में ही पूरा घर
 
तुम आईं
तो पता चला
आकाशकुसुम कैसा होता है
उषा-सुन्दरी की
लाली को
सूरज रोज़ कहाँ बोता है
 
हुआ बावरा
चित्त हमारा
देख तुम्हारी आँख-लिखे कनखी-अक्षर