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इच्छा / केशव
Kavita Kosh से
दोस्त
रिश्तों के कंगूरों पर बैठकर हम
हर वक्त
इच्छा को
ग़ीली मिट्टी की तरह
इस्तेमाल नहीं कर सकते
मन-मुताबिक खिलौने बनाने के लिए
इच्छा
जिस चाक पर
ग्रहण करती है आकार
उसे वहन करने के लिए
क्यों छोटे पड़ जाते हैं हमारे कंधे
पीड़ा की ज़मी हुई झील पर
अपने नाखूनों से
लिख दिया तुमने-----
इच्छा के खण्डहर में
भटकते रहना ही अच्छा है
जो न हो सके
उसकी धार के नीचे
चुपचाप खड़े रहना ही अच्छा है
तुम
इतने बड़े शून्य को
बाँहों में भर सकोगे दोस्त
तुम इच्छा को
बर्फ की तरह
हथेलियोँ पर
कब तक धर सकोगे दोस्त