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इज़्ज़तपुरम्-60 / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
कल
लगती सूरज की
खुलती आँख अच्छी थी
और आज डूबती
दुश्मन
जा मरता नहीं
पाउउर की परत
हल्की हो जाती
बार-बार
बार-बार
जूड़े की पिन
खिसकी जाती
और बार-बार
कील-काँटे से दुरूस्त
लोहे की काया
अँधेरे की रेलगाड़ी
यात्री तलाशती
ठंडी सड़क पर
सीटी बजाती