इतना-सा उपहार दे दो / कविता भट्ट
जिसे जो भी चाहिए, उसे वे अधिकार दे दो,
अभिशाप जितने हैं जग में, मुझे वे भंडार दे दो।
अपेक्षा अब नहीं कोई, जगत के व्यापार से;
धड़कनें अब थक रही, शेष सब दुत्कार दे दो।
प्रभु! यदि कुछ शेष हों, जूठनें और कतरनें;
मेरी ही झोली में डालो, इक ये पुरस्कार दे दो।
मौन धरती- गगन चुप, कैसी निर्मम भाग्यरेखा;
स्वप्न में ही खो गईं, अब तो वह मनुहार दे दो।
जो भी अमृत तुम दिए थे, बाँट आई अँजुरियाँ;
विष ही मेरे नाम का तो, उसके ही अम्बार दे दो।
खिंच गई हैं क्यों कटारी, मैंने ऐसा क्या किया;
प्यार देकर घृणा पाई, सब शेष हाहाकार दे दो।
अंकुरण से पूर्व ही, मरुथल- सी धरती हो गई;
ताप कोई भी शेष हो, इस बीज को संहार दे दो।
है पवन भी रुक्ष- सी, वृक्ष कंटक बन खड़े;
इतनी -सी मेरी प्रार्थना, मृत्यु को आकार दे दो।
रक्तधारा शिथिल- सी, हृदयगति विश्रांत है;
अब मुझे ले लो,शरण इतना- सा उपहार दे दो।