भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतना-सा उपहार दे दो / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                                                                                                     
जिसे जो भी चाहिए, उसे वे अधिकार दे दो,
अभिशाप जितने हैं जग में, मुझे वे भंडार दे दो।

अपेक्षा अब नहीं कोई, जगत के व्यापार से;
धड़कनें अब थक रही, शेष सब दुत्कार दे दो।

प्रभु! यदि कुछ शेष हों, जूठनें और कतरनें;
मेरी ही झोली में डालो, इक ये पुरस्कार दे दो।

मौन धरती- गगन चुप, कैसी निर्मम भाग्यरेखा;
स्वप्न में ही खो गईं, अब तो वह मनुहार दे दो।

जो भी अमृत तुम दिए थे, बाँट आई अँजुरियाँ;
विष ही मेरे नाम का तो, उसके ही अम्बार दे दो।

खिंच गई हैं क्यों कटारी, मैंने ऐसा क्या किया;
प्यार देकर घृणा पाई, सब शेष हाहाकार दे दो।

अंकुरण से पूर्व ही, मरुथल- सी धरती हो गई;
ताप कोई भी शेष हो, इस बीज को संहार दे दो।

है पवन भी रुक्ष- सी, वृक्ष कंटक बन खड़े;
इतनी -सी मेरी प्रार्थना, मृत्यु को आकार दे दो।

रक्तधारा शिथिल- सी, हृदयगति विश्रांत है;
अब मुझे ले लो,शरण इतना- सा उपहार दे दो।