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इतना न खींचो हो गया बस / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी

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इतना न खींचो हो गया बस
टूट न जाए तारे नफस

शीरीं बयानी उसकी मेरे
घोलती है कानों में मेरे रस

खाती हैं बल नागिन की तरह
डर है न लेँ यह ज़ुलफें डस

उसका मनाना मुशकिल है
होता नहीं वह टस से मस

वादा है उसका वादए हश्र
अभी तो गुज़रे हैँ चंद बरस

फूल उन्हों ने बाँट लिए
मुझको मिले हैं ख़ारो ख़स

सुबह हुई अब आँखें खोल
सुनता नहीँ क्या बाँगे जरस

उसने ढाए इतने ज़ुल्म
मैंने कहा अब बस बस बस

बर्क़ी को है जिस से उम्मीद
उसको नहीं आता है तरस