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इतना ही / जयप्रकाश मानस
Kavita Kosh से
दो मूँगफली
खेत की मिट्टी में धँसी
जैसे किसान ने आख़िरी हल चलाते
ज़मीन के लिए नहीं, मेरे लिए छोड़ दी हो।
मैं गिलहरी
पुआल की गठरियों के बीच- धूप के टुकड़े चुनती
क्या इतना ही चाहिए?
जीने को या जीने के अर्थ को?
खेतों की मेड़ पर
साँझ की छाया लंबी होती है
बरगद की जड़ें - ज़मीन को थामे
मुझसे कहती हैं -
थिरकना; लेकिन ठहरना भी।
मूँगफली का स्वाद - मिट्टी का
जैसे समय ने
खेतों में कुछ रख छोड़ा हो।
क्या यह धरती, किसान और मेरी छोटी-सी दौड़
सब एक ही कविता हैं ?
इतना ही चाहिए -
दो मूँगफली
और खेत की हवा में
एक पल
जो न मेरा
न धरती का....
बस है।
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