भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतनी आफ़तों की आहटें हैं / सुधेश
Kavita Kosh से
इतनी आफ़तों की आहटें हैं
लो आ गई अब तो आफ़तें हैँ।
कितनी मुश्किलें हैं ज़िन्दगी में
जीवन में न जितनी चाहतें हैँ।
किस को यहाँ बहकाते रहे हो
दोज़ख़ यहीं पर तो जन्नतें हैं।
जितनी आप को आसानियाँ हैं
उतनी सैंकड़ों को मुश्किलें हैं।
शायद आ गया महबूब मेरा
देखो पाँव की कुछ आहटें हैँ।
सारी रात कोई सो न पाया
योँ ही बिस्तरे में सलवटें हैँ।
इतनी रात को यह कौन आया
किस की द्वार पर ये दस्तकें हैँ।