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इतनी दूर से आए तुम / निकोलस गियेन / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
इतनी दूर सेआए तुम
और मैंने तुम्हारा इन्तज़ार नहीं किया
जानते हुए कि तुम आओगे !
क्या कर सकता हूँ मैं, भला !
अगर गुज़रती हुई हवा में
तुम्हारी झलक भी मुश्किल से मिल पाए !
क्या तुम्हारी आवाज़ वह ख़ुशबू है
जो मेरा पीछा करे और हवा हो जाए,
क्या तुम्हारी देह एक सपना है
जिसमें से मैं आंसुओं में तर जागता हूँ,
क्या तुम्हारे हाथ फूल की पँखुड़ियाँ हैं
जिन्हें मैं आहिस्ते से छू-भर सकूँ
और तुम्हारी हंसी एक दूरदराज इन्द्रधनुष
तीसरे पहर की नम ख़ामोशी में ?
क्या कर सकता हूँ मैं, भला !
अगर गुज़रती हुई हवा में
तुम्हारी झलक भी मुश्किल से मिल पाए ?
(1964)