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इतनी बड़ी भीड़ में केवल / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

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इतनी बड़ी भीड़ में केवल था मेरा ही कण्ठ अकेला
तुमने स्वर दे दिया गीत को बहुत बड़ा अहसान तुम्हारा।

जब जब प्यास बढ़ी प्राणों की
तब-तब मैंने खुलकर गाया
दर्द भरी वीणा को सुनकर
कोई मेरे पास न आया
दिन -दिन बढ़ती गई उदासी, ज्यों मरुस्थल में हिरनी प्यासी
तुम उतने ही दूर हो गए, मैंने जितनी बार पुकारा।

आँसू अक्षर बने एक दिन
गढ़ी गई पीड़ा की भाषा
अपना यदि कह दिया किसी ने
और बढ़ी जीने की आशा
बनी गन्ध फूलों की वाणी, मधुर हो गई प्रेम-कहानी
तब से मन- दर्पन में आकर ठहर गया प्रतिबिम्ब तुम्हारा।।

यह कविता अपूर्ण है, अगर आपके पास बाक़ी अंश है तो कृपया, इसे पूरा कर दें।