इतनी रात कहाँ जाऊँ अकेले / समीर ताँती
इतनी रात कहाँ जाऊँ अकेले,
बालू में नदी को बिलखता छोड़।
इतना शिशुओं - सा आकुल होने वाला
कोई नहीं धरती पर।
जनशून्य हर दिशा,
जनशून्य।
जनशून्य मार्ग,
सूना आकाश,
निर्जन ग्राम-प्रांतर, शहर।
चिड़ियाँ अँधेरे में
नाम ले-ले विलपती हैं।
किसके शोक की गाथा गाती चिड़िया?
या अँधेरे में
रोते बच्चों को बस चुप कराती?
रात के समय जंगल के रास्ते पर
चिल्ला-चिल्ला पुकारता हूँ।
चिड़िया, ओ चिड़िया दूर न जाना,
दूर न जाना, चिड़िया।
बाढ़ में बह गये कितने-कितने शिशु,
बम से उड़ाए गए कितने-कितने शिशु।
मेरे अधूरे सपनों के सुर।
तारे,
निस्तब्ध ये तारे जानते हैं क्या
कि किसके रक्त की लहर में
बह गए घर के घर।
कैसा यह रक्त,
किसके ये अश्रु,
मेरी सदी की स्मारिका।
कौन दूसरा है कविता जैसा स्नेही?
इस चाँदनी-धुली रात में
उन बच्चों के पास ले जाएगी मुझे।
समीर ताँती की कविता : ’कल'इ जाउँ एइ राति अकलख़रे’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित