भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतनी सारी ढेर किताबें / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसको अपने ज़ख़्म दिखाऊँ,
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ।
इतनी ढेर किताबें लेकर,
अब मैं शाला कैसे जाऊँ।

बीस किताबें ठूंस-ठूंस कर,
मैंने बस्ते में भर दीं हैं।
बाजू वाली बनी जेब में,
पेन पेंसिलें भी धर दीं हैं।
किंतु कापियाँ सारी बाकी,
उनको मैं अब कहाँ समाऊँ।

आज धरम कांटे पर जाकर,
मैंने बस्ते को तुलवाया।
वज़न बीस का निकला मेरा,
बस्ता तीस किलो का पाया।
चींटी होकर हाय किस तरह,
मैं हाथी का बोझ उठाऊँ।

गधों और बच्चों में अब तो,
बड़ा कठिन है अंतर करना।
जैसे गधे लदा करते हैं,
हम बच्चों को पड़ता लदना।
कंधे, पीठ हुए चोटिल हैं,
अगर कहें तो अभी दिखाऊँ।

इतना कठिन सिलेबस जबरन,
हम बच्चों पर क्यों थोपा है।
नन्हें से छोटे गमले में,
बरगद का तरुवर रोपा है।
अपन दर्द बताना है प्रभु
दर पर बोलो कब मैं आऊँ?