भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं ।
है देखने की बात कोई देखता नहीं ।।
गर्दूं की वुसअतों में भटकता है हर बशर
क़तरे की कायनात कोई देखता नहीं ।
पर्दे में ख़ामुशी के शबो-रोज़ हर घड़ी
होती है वारदात कोई देखता नहीं ।
मज़हब ही उसकी आख़िरी पहचान बन गया
क्यूँ आदमी की ज़ात कोई देखता नहीं ।
बगुले ने कैसे चोंच में मछली दबोच ली
क्यूँ ऐसे वाक़यात कोई देखता नहीं ।
बेगानावार तू भी बग़ल से गुज़र गया
बदरंगिए-हयात कोई देखता नहीं ।
अब चलके सोज़ आप भी पत्थर बटोरिए
दिल के जवाहिरात कोई देखता नहीं ।।