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इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'

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इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं ।
है देखने की बात कोई देखता नहीं ।।

गर्दूं की वुसअतों में भटकता है हर बशर
क़तरे की कायनात कोई देखता नहीं ।

पर्दे में ख़ामुशी के शबो-रोज़ हर घड़ी
होती है वारदात कोई देखता नहीं ।

मज़हब ही उसकी आख़िरी पहचान बन गया
क्यूँ आदमी की ज़ात कोई देखता नहीं ।

बगुले ने कैसे चोंच में मछली दबोच ली
क्यूँ ऐसे वाक़यात कोई देखता नहीं ।

बेगानावार तू भी बग़ल से गुज़र गया
बदरंगिए-हयात कोई देखता नहीं ।

अब चलके सोज़ आप भी पत्थर बटोरिए
दिल के जवाहिरात कोई देखता नहीं ।।