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इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी / विजय किशोर मानव
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इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी।
गोया हमारे कई इम्तहान हैं बाक़ी॥
आग तो दूर दिया भी नहीं जला घर में
अभी धुएं के कई आसमान हैं बाक़ी।
न गिरने दे न चलें, पांव लड़खड़ाते हैं
घर पहुंचने में चार-छः मकान हैं बा़की।
अभी तो देखा है अश्कों को खौलते तुमने
हमारे ख़ून के सारे उफ़ान हैं बाक़ी।
उठ गए सो के, फिर से चल भी पड़े,
किसे पता है कि कितनी थकान है बाक़ी।