इतने बंधे बंधनों में बंधन सारे स्वच्छंद हो गये।
कलम स्वतंत्र न रह पायी तो दृग के आँसू छंद हो गये॥
कलियों ने नित आँख तरेरी शूलों ने कितना धमकाया
किंतु प्रेम-पंथी कब सुनते स्वयं सुमन में बंद हो गये॥
समय रहा दीवार उठाता प्रतिपक्षी थे प्रति पल घेरे
अधर मौन थे पर नैनों से कितने ही अनुबंध हो गये॥
चंदन काया काष्ठ नहीं यह घिस-घिस करे सुगंधित जग को
उनकी समता को किससे जिनके जीवन मकरंद हो गये॥
साँस सांत्वना देने बैठी धड़कन-धड़कन छंद रच रही
जग का दर्द सुनाने वाले कवि गण स्वयं प्रबंध हो गये॥