इतिवृत्त / महेश वर्मा
अभी यह हवा है वह पुराना पत्थर
(चोट की बात नहीं है यहाँ सिर्फ़ देह की बात है)
यह सर हिलाता वृक्ष पहले उदासी था
यह कील थी पहले एक आँसू
यह रेत एक चुम्बन की आवाज़ है मरुस्थल भर
हँसी नहीं था यह झरना--
यह आग थी हवा में शोर करती चिटखती
अब इसने बदल ली है अपनी भाषा
चाँद पुराना कंगन नहीं था
कुत्ते के भौंकने की आवाज़ थी
परिंदे दरवाज़े थे पहले और आज
जो दरवाज़े हैं वे दरख़्त थे ; यह
सब जानते हैं.
जानना पहले कोई चीज़ नहीं थी
वह नृत्य लय थी : ख़ून की बून्दों पर नाचती नंगे पाँव
शोर चुप्पी से नहीं
रोशनी से आया है यहाँ तक
खाली जगहें सबको जोड़ती थीं ।