पेड़ और पर्वत के नाम न थे,
सिन्धु और अम्बर के नाम न थे,
नाम न थे फूल और रंगों के,
--तब भी मैं गन्धवती थी,
--तब भी तुम तेजोमय थे!
भाषा भंगिमा में अंकुरती थी,
निकटता परस से ही जुड़ती थी,
संगति तो संग-संग मुड़ती थी;
--तब भी मैं स्वप्नवती थी,
--तब भी तुम मेधावी थे!
श्रम कर, आश्रम के आश्रमिक हुए,
मूल्यों से भी परिचित तनिक हुए,
तर्क के गुणी सचमुच वणिक हुए,
--तब भी मैं रसवन्ती थी,
--तब भी तुम छलनामय थे!