भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतिहास-सृष्टाओ ! / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इंसान की तक़दीर को

बदले बिना —
इंसान जो
अभिशप्त है: संत्रस्त है
जीवन-अभावों से !
इंसान जो
विक्षत प्रताड़ित क्षुब्ध पीड़ित
यातनाओं से, तनावों से !
उस दुखी इंसान की
तक़दीर को बदले बिना ;
संसार की तसवीर को
बदले बिना
संसार जो
हिंसा, विगर्हित नग्न पशुता ग्रस्त,
रक्त-रंजित,
क्रूरता से युक्त
घातक अस्त्र-बल-मद-मस्त !
उस बदनुमा संसार की
तसवीर को बदले बिना ;
इतिहास-द्रष्टाओ !
सुखद आरामगाहों में
तनिक सोना नहीं, सोना नहीं !
संघर्ष-धारा से विमुख
होना नहीं, होना नहीं !

हर भेद की प्राचीर को

तोड़े बिना,

पैरों पड़ी ज़ंजीर को

तोड़े बिना,

इतिहास-सृष्टाओ !
सतत श्रम-साध्य
निर्णायक विजय-अवसर
अरे, खोना नहीं, खोना नहीं ।

इंसान की तक़दीर को

बदले बिना,

संसार की तसवीर को

बदले बिना,

सोना नहीं, सोना नहीं !