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इतिहास-सृष्टाओ ! / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
इंसान की तक़दीर को
बदले बिना —
इंसान जो
अभिशप्त है: संत्रस्त है
जीवन-अभावों से !
इंसान जो
विक्षत प्रताड़ित क्षुब्ध पीड़ित
यातनाओं से, तनावों से !
उस दुखी इंसान की
तक़दीर को बदले बिना ;
संसार की तसवीर को
बदले बिना
संसार जो
हिंसा, विगर्हित नग्न पशुता ग्रस्त,
रक्त-रंजित,
क्रूरता से युक्त
घातक अस्त्र-बल-मद-मस्त !
उस बदनुमा संसार की
तसवीर को बदले बिना ;
इतिहास-द्रष्टाओ !
सुखद आरामगाहों में
तनिक सोना नहीं, सोना नहीं !
संघर्ष-धारा से विमुख
होना नहीं, होना नहीं !
हर भेद की प्राचीर को
- तोड़े बिना,
- तोड़े बिना,
पैरों पड़ी ज़ंजीर को
- तोड़े बिना,
- तोड़े बिना,
इतिहास-सृष्टाओ !
सतत श्रम-साध्य
निर्णायक विजय-अवसर
अरे, खोना नहीं, खोना नहीं ।
इंसान की तक़दीर को
- बदले बिना,
- बदले बिना,
संसार की तसवीर को
- बदले बिना,
- बदले बिना,
सोना नहीं, सोना नहीं !