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इतिहास के पत्रों पर खून के धब्बे / महेश सन्तोषी

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वह रास्ता मैंने अपने लिये नहीं चुना था,
पर, जिस रास्ते से मैं हर रोज़ गुजरता हूँ
उसमें एक मन्दिर, एक मस्जिद, एक मठ
और एक गिरिजाघर पड़ते हैं।

मेरा सर हर एक के सामने,
बिना किसी प्रयास के झुक जाता है,
शायद यह रास्ता इतिहास से होकर जाता है।
और, इतिहास का हर मोड़, इस रास्ते पर आकर ठहर जाता है।

मैं सोचता हूँ, अगर हमारे सर सामूहिक रूप से
हर मन्दिर, मस्जिद और गिरिजाघर के सामने झुक गये होते,
तो शायद इतिहास के इस रास्ते पर खून के इतने धब्बे
चारों ओर बिखरे हुए नहीं होते!