इतिहास के पर्चे से / ओम भारती
शाम का वक़्त था, वे मज़दूरी से
नोन तेल लकड़ी खरीदने के बाद
डेरे की तरफ़ लौट रहे थे इटारसी में
वहीं मैं इतिहास-पर्चे से
मर्द ने औरत से कहा कुछ शिकायत में शायद
औरत ने जवाब दिया शरारत में शायद
और हँसते-हँसते यादों में चले गए वे
एक मौन था जिसे सहसा औरत ने तोड़ा-
तुम्हे याद है जब हम क़िला बना रहे थे अपने मंडला में
और तुम्हे गालियाँ दी थीं मुकद्दम ने-खोरवा,
नाशपीटा काम करा लेता था
मज़दूरी देने को फटती थी छाती...
मर्द ने भी याद किया-उज्जैन, आगरा
कलकत्ता और टाटानगर अपना-
खजुराहो मंदिर बनाने में बड़ा मज़ा आया था
हालाँकि स्सालों ने काट ली थी मज़दूरी
और तेरी तो टाँग भी गई थी...
औरत ने अधबीच में धर लिया था-
भूल गए भोपाल का ताल खोदते टाइम...
कि मर्द बता रहा था जब ताजमहल...कुतुब...
खड़ा कर रहे थे हम...
मैं पीछे-पीछे जैसे चलता हुआ
नींद और स्वपन के अवकाश में
सुनता था उस जवान जोड़े को
विश्वास आना नहीं था मुझे
उनकी विश्रृंखलित बातों पर
मगर उनके पास थे सैकड़ों या हज़ारों संस्मरण
हज़ारों कामों की यादें थी पुख़्ता
हज़ारों सबूत उनकी देह और आत्मा में
वे हजारों सालों के पसीने और भूख में
एक निर्माण से दूसरे निर्माण तक
या इस रण से उस रण
एक युग से दूसरे या इस देश से उस देश
ऐसे उतर आते थे जैसे मैं उतरा
एक-एक पायदान इटारसी के रेलवे-पुल की
पुल के बारे में यद्यपि वे बतियाते नहीं थे
पर
वह पुल भी जैसे उन्ही ने बनाया था
और यहाँ जैसे की भी ज़रूरत कहाँ है
वह पुल भी यक़ीनन उन्ही ने बनाया था।
(1991)