इतिहास बनकर रह जाएँगीं मुरली की धुनें
उपहास का विषय होंगे, अलाप भरने, अलाप सुनने वाले,
शास्त्रों में ही शेष रह जाएगा शास्त्रीय संगीत
दो शागिर्द तक नहीं जुटेंगे, कन्धा देने, जनाजा उठाने वाले!
अबके जब आएँगे साजों पर, ठहर ही जाएँगे मोहर्रम
सकते में पड़ जाएँगे मर्सिये गाने, मातम मनाने वाले।
औरंगजेबी नहीं हैं ये तेवर,
सात समन्दर पार से आये हैं संगीत के नये स्वर
गाना-बाना तो कम है, दोहराना, थिरकना, इठलाना ज्यादा है,
हर घर को बनाकर छोड़ेंगे ये नाच-घर!
आप चाहें तो सिसकियाँ भर लें, दो आँसू रो लें,
तानसेन के मकबरे पर दो गज ज़मीन में सिमटी उजड़ी कब्र पर!