इतिहास से होकर / महेश सन्तोषी
तुमने कभी लिखा था,
इतिहास से होकर आये हैं, ये खून से लथपथ रास्ते,
फिर लकीरों में लहू छोड़ेंगे, अगली पीढ़ियों के वास्ते
तुमने ऐसा क्यों लिखा था? क्या तुमने केवल लड़ाइयों का इतिहास पढ़ा था?
या, इतिहास में केवल लड़ाइयों वाला पाठ पढ़ा था?
वैसे तो हर कौम की नसों में, नस्ल में हिंसा है,
वैसे तो हर सभ्यता की नींव के नीचे एक बर्बर आदमी खड़ा था!
जो जीता, महान बन गया, जो हारा पैरों तले रौंदा गया,
सवाल समुरायों का नहीं है, सामरिक मूल्यों का भी नहीं था,
जश्न समुदायों की हिंसक मानसिकता का था।
ये इतिहास अब फिर से नहीं लिखे जाएँगे,
जो महान बन गये, महान बने रह जाएँगे,
पिछली पीढ़ियाँ दोहराती रही हैं, अगली पीढ़ियाँ भी दोहराती रहेंगी उनके नाम,
कुछ ऐसे भी लोग थे, जो अमन के रास्ते पर चले,
वक्त की आग में बेवक्त झुलसे, जले,
हमने क्यों नहीं लिख दीं रोशनियों की विरासतें उनके नाम?
सजा दी सुकरात को, ज़हर दे दिया, पास से, बहुत पास से भून दिया गांधी को,
अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग का खून कर दिया सरेआम!
इतिहास के अँधेरे या अँधेरों का इतिहास,
सिर्फ तवारीखें हैं, किसी ज़िन्दा कौम की तक़दीर नहीं।
जीवित रहने को सूरज की धूप चाहिए, मरी रात की रोती हुई तस्वीर नहीं,
कल खून की नदियाँ बही थीं, आज भी बहें और परसों भी
यह किसी गढ़े शिलालेख में खुदी पत्थर की लकीर नहीं!