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इतिहास / अशोक तिवारी

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इतिहास
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तारीखों का समुच्चय,
गुज़री हैं जो एक-एक कर,
ज़िंदादिली की ख़ुशबू और साहस-दुस्साहस के लम्हों के साथ
भरी पड़ी हैं जिसमें जीवंत किस्से-कहानियाँ,
हमारे होने-न होने का अहसास भर है जहाँ
इतिहास है वहाँ
 
छिपाए हुए अन्तःस्थल में,
सब कुछ गुज़र रहा है प्रतिपल बदलने के इंतज़ार में,
जीवंत इकाइयों का स्पंदन
भरता है उन पन्नों पर कुछ हर्फ़,
हो गए जो ख़ाक,
उसी ख़ाक में जन्मे छोटे-मोटे विशालकाय हरे-भरे पेड़ों से
छनकर आता है समय के गुज़र जाने का एक अहसास ,
धूप-छाँव की तरह,
जिनके पत्तों में समाया है
गुज़री तारीखों का अर्क,
जहाँ हज़ारों-लाखों-करोड़ों साल
गुज़र जाते हैं पलक झपकते ही
 
इतिहास हमें अपने जीने-मरने की दास्ताँ से
कराता है रूबरू,
साक्षी है जो हमारी हर हार और जीत का,
बहादुरी, काइयाँपन और बेचारगी का
गिर-गिरकर उठने और
उठ-उठकर गिरने की कितनी ही दफ़न दास्तानों की
अनगिनत परतों को
ज़िंदगी के भावों के पैदा होने या ख़त्म होने को
रखता है सँभालकर अपनी स्मृतियों में।
 
शिलालेखों पर उकेरी गई भाषा का स्वरूप,
कितनी ही प्रकट-अप्रकट कहानियों को
छिपाए रखता है अपने अन्तःस्थल में,
जो दिखाता है हमें अपना अक्स
हम क्या थे, हो गए हैं हम क्या,
तैयारी है और क्या हो जाने की, हमारी
 
साँस लेने और थम जाने का सिलसिला,
हमारे जीने और न जीने का गवाह बनकर,
शिनाख्त करते हुए हर एक गवाही की
इतिहास देखता रहता है इर्द-गिर्द
चीज़ों को बनते और बिगड़ते हुए।
सबूतों को मिटाए जाने की हर हरकत को करता है दर्ज
वक़्त की अदालत में
 
गुज़रते पल बदल जाते हैं तारीख़ों में
तारीख़ ढल जाती हैं तवारीख़ में,
कुछ जुड़ने और कुछ मिटने की त्रासदियों के साथ,
और काली स्याह ज़िंदगी के हरफ़
ढल जाते हैं दास्तानों में,
डार्विन की उक्तियों के साथ जैविक विविधता को समझते हुए
ज़िंदा रहती हैं जो
हर साँस के साथ,
हाशिये के अंदर और बाहर भी।
 
आए कितने ही दौर
बनी-बिगड़ी कितनी ही सल्तनत
पनपीं कितनी ही सभ्यताएँ और तहज़ीब
कितने ही उसूलों को बनाया-बिगाड़ा जाता रहा धरातल पर
तवारीख़ का हिस्सा बने वही
रहे जो इंसानी जज़्बे से सराबोर
 
इतिहास
खुद को जानने और समझने का
एक ऐसा औज़ार
जो देता है हमें ज़िंदगी जीने की समझ
सिखाता है छल फ़रेब से परे
प्यार-मुहब्बत और ख़ुलूस
गाते हुए ख़ूबसूरत ज़िन्दगी का दिलकश तराना
वही तराना, जिसके बनने और सँवरने में रूपक
भूत से उठकर उछल जाते हैं भविष्य की ओर
और इतिहास की पैनी और धारदार नज़र
सब कुछ होते हुए देखती है वर्तमान से गुज़रते हुए
और दर्ज करती है लम्हा दर लम्हा उस किताब में
जो कभी भरती ही नहीं
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