भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इति नहीं होती / महेश अनघ
Kavita Kosh से
धीर धरना,
राग वन से रूठ कर जाना नहीं पाँखी ।
फिर नए अँखुए उगेंगे
इन कबन्धों में,
यह धुँआ कल बदल सकता
है सुगन्धों में,
आस करना
कुछ कटे सिर देख घबराना नहीं पाँखी ।
शोर गुल से रागिनी के
स्वर नहीं घिसते,
इस मरुस्थल में बनेंगे
फिर ललित रिश्ते,
आँख भरना,
पर मधुर संगीत बिसराना नहीं पाँखी ।
क्षति नहीं होती प्रणय की
नीड़ जलने से,
इति नहीं होती बधिक का
तीर चलने से,
नहीं डरना
क्रौञ्च का बलिदान दुहराना नहीं पाँखी ।
सृजन की सम्भावना है
धरा जीवित है,
पवन हैं उन्चास जग में
रस असीमित है,
मत बिखरना
ज़िन्दगी ने मौत को माना नहीं पाँखी ।