भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इत्मीनान के लिए / निर्मला गर्ग
Kavita Kosh से
एक गिलास है जो तल तक ख़ाली है
ढँका है कोस्टर से
यह ऐसे ही रहना चाहता है
अकेला ख़ालीपन के अन्धेरे से घिरा
वही हो जाती हूँ मैं कभी-कभी
कभी-कभी हो जाती हूँ टीन
नीची छत की
दुःस्वप्न गिरते हैं जहाँ बारिश की तरह
खिड़की से झाँक कर देखती हूँ :
एक पेड़ है और एक बादल का टुकड़ा
इत्मीनान के लिए काफ़ी है यह फ़िलहाल ।