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इधर-उधर यहाँ-वहाँ की बात बोलने लगे / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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					इधर-उधर   यहाँ-वहाँ   की   बात   बोलने  लगे,
क्या खुशनुमा फ़िज़ा थी आके जह्र घोलने लगे।
लहू-लहू   सी   ख़ौफ़-ख़ेज़   तुंदख़ू   सी ले नज़र ,
कली-कली   पे  क्यों  भला  ये भौंरे डोलने लगे।
किसे  पता  कहाँ  से कब फ़िदाइनी अटैक   हो,
डरे-डरे    से   फूल   सारे    आँख   खोलने लगे।
अभी तो ख़्वाब आँख की हैं ड्योढ़ी भी चढ़े नही,
अभी  तो रात   हँस  रही   क्यों   मुर्गे   बोलने लगे।
दरीचा-ए-उफ़ुक़  को  कोई  कर  रहा  सियाह गो,
निगह-निगह  में  लोग  'ज्ञान'   सच   टटोलने लगे।
 
	
	

