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इधर दो फूल मुँह से मुँह सटाए / रमेश रंजक
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इधर दो फूल मुँह से मुँह सटाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
हमें दिन इस तरह के
रास आए नहीं ये दीगर
तसल्ली है कहीं तो
पल रहा है प्यार धरती पर
हरे जल पर पड़े मस्तूल-साए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
खुले में ये खुलापन देखकर
जो चैन पाया है
कई कुर्बानियों का रंग
रेशम में समाया है
उमर की आग का परचम उठाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर।