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इधर मैंने उठायी है / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
वह उधर बजा रही है ढोलक
जो नहीं देख पा रहे हैं वे भी सुन रहे हैं उसकी थापऽऽऽ
काफी दिनों से पड़ी थी अनजबी यह
साफ़ किया इसे टाँड से निकाल कर
दोनों घुटनों के बीच अड़ा इसके ढीले छल्लों को कसा
कसते ही तन गयी हैं डोरियाँ
चमड़े खिल उठे हैं दोनों पूड़ों के
नहीं थी जो अभी-अभी तक वो गूँज उभर आयी है
ढोलक में
इधर मैंने उठायी है एक अधूरी कविता
पूरी करने