भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इधर सो रहे कुछ उधर जग रहे / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
इधर सो रहे कुछ उधर जग रहे।
मुझे यह मुनासिब नहीं लग रहे।।
भला तो यही है सभी हम जगें।
भगायें उसे जो हमें ठग रहे।।
नहीं चाहिए कम अधिक भी नहीं।।
अमन चैन से हम रहें, जग रहे।।
निहारो उसे जो दिखाई न दे।
दही दूध से ये बना रग रहे।।
करें बात किससे सभी हैं बड़े।।
कहें सच हमेशा अडिग पग रहे।।